मैं नहीं चित्र ; हूँ दर्पण !!
कितना किया है अनुभव ?
कितनी हुई है अनुभूतियाँ ?
हरेक ने पाई मुझसे शुरुआत,
और मुझमे ही पाया अंत !
पर प्रश्न ये ....?
क्या मैं आत्म,अब भी वो ही ?
या बदल गई,कहीं ?
मानो सागर की तरंगे अनेक,
उसमे उत्पन्न,उसमे ही विलीन एक-एक !
चित्र सीमित.........
दर्पण असीमित................
अगर दिल दर्पण बन पाए ?
तो सीमित........असीमित हो जाये !
चित की छाप छोड़ो,
जिंदगी का मुख आगे की और मोड़ो !
हमेशा भावुक रहना;सही नहीं,
हमेशा बुद्धि से काम लेना;भी नहीं सही,
दिल-दिमाग के बीच का अंतर करो खत्म,
दोनों की राह करो एक,
सर्व व्यवस्थित हो जायेगा स्वयं;हरेक !!
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