Friday, March 18, 2011

ख़ुशी का शिखर;दुःख की गहराई

ख़ुशी का शिखर;दुःख की गहराई


जब जो चाहते,वो पाते....

तो बेहद खुश हो जाते,

ख़ुशी के शिखर पर पहुँच जाते.......

और जब;नापसंद की होती बात....

तो मानो आ गया काल आपात ;

दुःख की गहराई में धंसते चले जाते...........!!


ये है उसकी बात;

मानुष एक आम,

पर आत्मज्ञानी ऐसा नहीं होता

वो सब;सुख-दुःख एक साथ अपनी झोली में लेकर चलता !!

मानो गए बाजार......

लेकर आये ढेर सारा फलाहार;

फिर एक संतरा लिया......

छिल्का उतारा और खाया ;

पर ये क्या..पैसे तो दोनों के थे दिए....

संतरा;साथ छिल्का लिए हुए...

पर काम कुछ आया;कुछ नहीं ....

तो क्या फिर दोनों के पैसे देने थे सही ?

हाँ ये था सही !

"संतरा;छिल्का -सुख;दुःख ".......हैं एक समान;

एक दुसरे के पूरक;पुरे.....

एक दुसरे बिना अधूरे........

एक ने दुसरे से अस्तित्व पाया.....

यही है सांसारिक मोह-माया ......

सांसारिक मोह माया !!!

No comments:

Post a Comment